अभी तो हौसला-ए-कारोबार बाक़ी है
ये कम कि आमद-ए-फ़स्ल-ए-बहार बाक़ी है
अभी तो शहर के खण्डरों में झाँकना है मुझे
ये देखना भी तो है कोई यार बाक़ी है
अभी तो काँटों भरे दश्त की करो बातें
अभी तो जैब ओ गिरेबाँ में तार बाक़ी है
अभी तो काटना है तिशों से चट्टानों को
अभी तो मरहला-ए-कोहसार बाक़ी है
अभी तो झेलना है संगलाख़ चश्मों को
अभी तो सिलसिल-ए-आबशार बाक़ी है
अभी तो ढूँडनी हैं राह में कमीं-गाहें
अभी तो मारका-ए-गीर-ओ-दार बाक़ी है
अभी न साया-ए-दीवार की तलाश करो
अभी तो शिद्दत-ए-निस्फु़न-नहार बाकी है
अभी तो लेना है हम को हिसाब-ए-शहर-ए-क़िताल
अभी तो ख़ून-ए-गुलू का शुमार बाक़ी है
अभी यहाँ तो शफ़क़-गूँ कोई उफ़ुक़ ही नहीं
अभी तसादुम-ए-लैल-ओ-नहार बाक़ी है
ये हम को छेड़ के तन्हा कहाँ चले ‘वामिक़’
अभी तो मंज़िल-ए-मेराज-ए-दार बाक़ी है