हार कर हिज्र-ए-ना-तमाम से हम
चुपके बैठे हुए हैं शाम से हम
कैसे इतरा रहे हैं अपनी जगह
हो के मंसूब उन के नाम से हम
बस के दीवाना ही कहेंगे लोग
आशना हैं मज़ाक़-ए-आम से हम
उन की आँखों को जाम कह तो दिया
अब निगाहें लड़ाएँ जाम से हम
रूख़ पे ज़ुल्फें बिखेरे आ जाओ
लौ लगाए हुए हैं शाम से हम
नाम क्यूँ लें किसी के कूचे का
इक जगह जा रहे हैं काम से हम
उन को पाना है किस लिए ‘महशर’
बाज़ आएँ ख़याल-ए-ख़ाम से हम