हस्ती है जुदाई से उस की जब वस्ल हुआ तो कुछ भी नहीं
दरिया में न था तो क़तरा था दरिया में मिला तो कुछ भी नहीं

इक शम्मा जली तो महफ़िल में हर सम्त उजाला फैल गया
क़ानून यही है फ़ितरत का परवाना जला तो कुछ भी नहीं

सैलाब में तिनके रक़्साँ थे मौजों से सफीने लरज़ाँ थे
इक दरिया था सौ तूफ़ान थे दरिया न रहा तो कुछ भी नहीं

असलियत थी या धोका था इक फ़ितना-ए-रंगीं बरपा था
सौ जलवे थे इक पर्दा था पर्दा न रहा तो कुछ भी नहीं

तूफ़ाँ भी था आँधी भी थी बाराँ भी था बिजली भी थी
आई जो घटा तो सब कुछ था बरसी जो घटा तो कुछ भी नहीं

फूलों से चमन आबाद भी थे दाम अपना लिए सय्याद भी थे
सब कुछ था ‘जमील’ इस गुलशन में बदली जो हवा तो कुछ भी नहीं

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *