हर चीज़ की तस्वीर बदल जाती है
हर ख़ाब की ताबीर बदल जाती है
लिक्खा नहीं मिटता कभी पेशानी का
ये झूठ कि तक़दीर बदल जाती है।
क्यों अपने मुक़द्दर का गिला करते हो
इल्जाम किसी और के सर धरते हो
वो जो न सके ‘रतन’ तुम्हारे अब तक
सौ जान से तुम जिन के लिए भरते हो
माथे की न तहरीर बदलती देखी
मनहूस घड़ी सर से न टलती देखी
किस्मत से ‘रतन’ जब भी बुरे दिन आये
तक़दीर की तदबीर न चलती देखी।
दुनिया में वो पहला सा ज़माना न रहा
उल्फ़त तो कहां उस का फ़साना न रहा
भाई की मुसीबत पे है भाई नाजां
बेगाने हैं सब कोई यगाना न रहा।