कियौ हरिजन-पद हमैं प्रदान। टेक
अन्त्यज, पतित, बहिष्कृत, पादज, पंचम शूद्र महान।
संकर बरन और वर्णाधम पद अछूत-उपमान॥
थे पद रचे बहुत ऋषियन ने, हमरे हित धरि ध्यान।
फिर ‘हरिजन’ पद दियै हमैं क्यों, हे गांधी भगवान्॥
हम तो कहत हम आदि-निवासी, आदि-वंस संतान।
भारत भुइयाँ-माता हमरी, जिनकौ लाल निशान॥
आर्य-वंश वारे-सारे तुम, लिये वेद कौ ज्ञान।
पता नहीं कित तें इत आये, बांधत ऊँच मचान॥
‘हरि’ को अर्थ खुदा, ‘जन’ बंदा जानत सकल जहान।
“बंदे खुदा” न बाप-माय का जिनके पता-ठिकान॥
हरिजन हरिदासी, देवदासी, रामजनी-सम मान।
वेश्या-सुत सम जानत सब जन, वैसाई है सनमान॥
हम हरिजन तौ तुम हूँ हरिजन कस न, कहौ श्रीमान?
कि तुम हौ उनके जन, जिनको जगत कहत शैतान॥
हम निसर्ग से भारत-स्वामी, यहु हमरो उद्यान।
‘हरिजन’ कहि ‘हरिहर’ हमरौ तुम, काहे करत अपमान॥

By shayar

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