हक़ीक़त में हसीं कोई नहीं है
मिरा ज़ौके-नज़र ख़ुद ही हसीं है
किसी का आस्तां मेरी जबीं है
ख़ुदा शाहिद मिरा काबा यहीं है
अभी से दिल है क्यों फ़रियाद बरलब
अभी तो उन कु मश्के-अव्वलीं है
बशर को नाज़ है जिस ज़िन्दगी पर
वही कमबख्त मारे-आस्तीं है
क़ज़ा का सामना है हर क़दम पर
महब्बत की ज़मीं कैसी ज़मीं है
किसी की रह-गुज़र में यूँ गिरा हूँ
कि उठने की सकत मुझ में नहीं है
क़शीदा हैं ‘रतन’ वो ख़ाब में भी
कोई तस्कीन की सूरत नहीं है।