सिवादे-शामे-ग़म से रूह थर्राती है क़ालिब में।
नहीं मालूम क्या होगा, जो इस शब की सहर होगी॥
क़फ़स से छूटकर पहुँचे न हम, दीवारे-गुलशन तक।
रसाई आशियाँ तक किस तरह बेबालो-पर होगी॥
फ़क़त इक साँस बाक़ी है, मरीज़े-हिज्र के तन में।
ये काँटा भी निकल जाये तो राहत से बसर होगी॥