सबक़ हम को मिला ये ज़िन्दगी से
गुज़ारो ग़म की घड़ियां भी खुशी से

हमेशा ग़म हुआ पैदा खुशी से
ख़जां फूटी गुलों की ताज़गी से

अजल से ज़िन्दगी क्या मांगते हम
अजल ख़ुद कांपती है ज़िन्दगी से

गुनाहों ने दरे-रहमत दिखाया
उजाला फूट निकला तीरगी से

जो होती आदमीयत आदमी में
फ़रिश्ते दर्स लेते आदमी से

ये कैसा इंकिलाब आया जहां में
गुरेजां आदमी है आदमी से

वो इस अंदाज़ से मुझ से मिले हैं
कि जैसे मिलते हैं इक अजनबी से

निगाहे-नाज़ की हल्की सी जुम्बिश
बदलती है क़ज़ा को ज़िन्दगी से

‘रतन’ देखो हमारी गोशा-गीरी
वतन में रह रहे हैं अजनबी से।

By shayar

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