शहीद-ए-याब ही वजह-ए-हुसूल-ए-मुद्दा भी है
यही दिल आशिक़ी की इब्तिदा भी इन्तेहा भी है

सियह-कारी पर आता है जब इंसाँ का दिल-ए-ग़ाफिल
ये बिल्कुल भूल जाता है के कोई देखता भी है

दिया जाता है अब हुक्म-ए-असीरी बे-गुनाहों को
भला कुछ ऐसे ज़ुल्म ना-रवा की इन्तेहा भी है

‘रवाँ’ अब मय-कदे से शेर की जाएँगे क्यूँ बाहर
यहाँ का नश्शा लज़्ज़त-ख़ेज भी है देर-पा भी है

By shayar

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *