वो आँख ज़बान हो गई है
हर बज़्म की जान हो गई है।

आँखें पड़ती है मयकदों की,
वो आँख जवान हो गयी है।

आईना दिखा दिया ये किसने,
दुनिया हैरान हो गयी है।

उस नरगिसे-नाज़ में थी जो बात,
शायर की ज़बान हो गयी है।

अब तो तेरी हर निगाहे-काफ़िर,
ईमान की जान हो गयी है।

तरग़ीबे-गुनाह लहज़ह-लहज़ह ,
अब रात जवान हो गयी है।

तौफ़ीके – नज़र से मुश्किले-ज़ीस्त,
कितनी आसान हो गयी है।

तस्वीरे-बशर है नक़्शे-आफ़ाक ,
फ़ितरत इंसान हो गयी है।

पहले वो निगाह इक किरन थी,
अब इक जहान हो गयी है।

सुनते हैं कि अब नवा-ए-शाएर ,
सहरा की अज़ान हो गयी है।

ऐ मौत बशर की ज़िन्दगी आज,
तेरा एहसान हो गयी है।

कुछ अब तो अमान हो कि दुनिया,
कितनी हलकान हो गयी है।

ये किसकी पड़ी ग़लत निगाहें,
हस्ती बुहतान हो गयी है।

इन्सान को ख़रीदता है इन्सान,
दुनिया भी दुकान हो गयी है।

अक्सर शबे-हिज़्र दोस्त की याद,
तनहाई की जान हो गयी है।

शिर्कत तेरी बज़्मे-क़िस्सागो में,
अफ़्साने की जान हो गयी है।

जो आज मेरी ज़बान थी, कल,
दुनिया की ज़बान हो गयी है।

इक सानिहा-ए-जहाँ है वो आँख,
जिस दिन से जवान हो गयी है।

दिल में इक वार्दाते-पिनहाँ,
बेसान गुमान हो गयी है।

सुनता हूँ क़ज़ा-ए-कह्‍रमाँ भी,
अब तो रहमान हो गयी है।

वाएज़ मुझे क्या ख़ुदा से,
मेरा ईमान हो गयी है।

मेरी तो ये कायनाते-ग़म भी,
जानो-ईमान हो गयी है।

मेरी हर बात आदमी की,
अज़मत का निशान हो गयी है।

यादे-अय्यामे-आशिक़ी अब,
अबदीयत इक आन हो गयी है।

जो शोख़ नज़र थी दुश्मने-जाँ,
वो जान की जान हो गयी है।

हर बैत ’फ़िराक़’ इस ग़ज़ल की
अबरू की कमान हो गयी है।

वो आँख ज़बान हो गई है
हर बज़्म की जान हो गई है।

आँखें पड़ती है मयकदों की,
वो आँख जवान हो गयी है।

आईना दिखा दिया ये किसने,
दुनिया हैरान हो गयी है।

उस नरगिसे-नाज़ में थी जो बात,
शायर की ज़बान हो गयी है।

अब तो तेरी हर निगाहे-काफ़िर,
ईमान की जान हो गयी है।

तरग़ीबे-गुनाह लहज़ह-लहज़ह ,
अब रात जवान हो गयी है।

तौफ़ीके – नज़र से मुश्किले-ज़ीस्त,
कितनी आसान हो गयी है।

तस्वीरे-बशर है नक़्शे-आफ़ाक ,
फ़ितरत इंसान हो गयी है।

पहले वो निगाह इक किरन थी,
अब इक जहान हो गयी है।

सुनते हैं कि अब नवा-ए-शाएर ,
सहरा की अज़ान हो गयी है।

ऐ मौत बशर की ज़िन्दगी आज,
तेरा एहसान हो गयी है।

कुछ अब तो अमान हो कि दुनिया,
कितनी हलकान हो गयी है।

ये किसकी पड़ी ग़लत निगाहें,
हस्ती बुहतान हो गयी है।

इन्सान को ख़रीदता है इन्सान,
दुनिया भी दुकान हो गयी है।

अक्सर शबे-हिज़्र दोस्त की याद,
तनहाई की जान हो गयी है।

शिर्कत तेरी बज़्मे-क़िस्सागो में,
अफ़्साने की जान हो गयी है।

जो आज मेरी ज़बान थी, कल,
दुनिया की ज़बान हो गयी है।

इक सानिहा-ए-जहाँ है वो आँख,
जिस दिन से जवान हो गयी है।

दिल में इक वार्दाते-पिनहाँ,
बेसान गुमान हो गयी है।

सुनता हूँ क़ज़ा-ए-कह्‍रमाँ भी,
अब तो रहमान हो गयी है।

वाएज़ मुझे क्या ख़ुदा से,
मेरा ईमान हो गयी है।

मेरी तो ये कायनाते-ग़म भी,
जानो-ईमान हो गयी है।

मेरी हर बात आदमी की,
अज़मत का निशान हो गयी है।

यादे-अय्यामे-आशिक़ी अब,
अबदीयत इक आन हो गयी है।

जो शोख़ नज़र थी दुश्मने-जाँ,
वो जान की जान हो गयी है।

हर बैत ’फ़िराक़’ इस ग़ज़ल की
अबरू की कमान हो गयी है।

By shayar

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