ये कौल तेरा याद है साक़ी-ए-दौराँ
अंगूर के इक बीच में सौ मयकदे पिनहाँ।
अँगड़ाइयाँ सुब्हों की सरे-आरिज़े-ताबाँ।
वो करवटे शामों की, सरे-काकुले-पेचाँ।
सद-मेह्र दरख़्शिन्दा , चराग़े-तहे-दामाँ।
सरता-ब-क़दम तू शफ़क़िस्ताँ-शफ़क़िस्ताँ।
पैकर ये लहकता है कि गुलज़ारे-इरम है
हर अज़्व चहकता है कि है सौते-हज़ाराँ।
ज़ीरो-बमे-सीने में वो मौसूक़ी-ए-बेसौत।
ये पंखड़ी होठों की है गुल्ज़ार बदामाँ।
ये मौजे – तबस्सुम हैं कि पिघले हुये कौंदे
शबनम-ज़दा ग़ुंचे’ लबे-लाली से पशेमाँ।
इन पुतलियों में जैसे हिरन मायले-रम हों
वहशत भरी आँखें हैं कि दश्ते-ग़िज़ालाँ।
हर अज़्वे-बदन जाम-बकफ़ है दमे-रफ़्तार
इक सर्वे चरागाँ नज़र आता है ख़रामाँ।
इक आलमे-शबताब है, बल खायी लटों में
रातों का कोई बन है कि है काकुले – पेचाँ।
तू साज़े-गुनह का है कोई परदा-ए-रंगीं
तू सोज़े-गुनह का है कोई, शोला-ए-रक़्साँ।
लहराई हुई ज़ुल्फ़, शिकन-ज़ेर-शिकन में
सौ पहलुओं से आलमें – जुल्मात में ग़लता।
अशआर मेरे तरसी हुई आँखों के कुछ खाब
हूँ सुब्हे – अज़ल से तेरे दीदार का ख़ाहाँ।
है दारो-मदार अह्ले-ज़माना का तुझी पर
तू क़त्बे-जहाँ, क़िबला-ए-दीं, काबा-ए-ईमाँ।
हम रिन्द हैं, वाक़िफ़े-असरारे-ज़माना
सीने में हमारे भी अमीने – ग़मे – दौराँ।
आँखों में नेहाँख़ाने हक़ीक़त के है महफ़ूज़
दुनाया-मजाज़ एक तवज्जुह की है ख़ाहाँ।
मस्ती में भी किस दर्जा है मुहतात अदाएँ
इक नीम-निगह रौशनी-ए-महफ़िले-रिन्दाँ।
परदा दरे-असरारे- नेहाँन नर्म निगाहें
नब्बाज़े-ग़मे-अह्रमानो-मरज़ी-ए-यज़दाँ।
कामत है कि कुहसार प चढ़ता हुआ दिन है
जोबन है कि है चश्मा-ए-ख़ुर्शीद में तूफ़ाँ।
साँचे में ढले शेर हैं, या अज़्वे-बदब के
ये फ़िक्र नुमा जिस्म, सरासर ग़ज़लिस्ताँ।
हर जुंबिशे-आज़ा में छलक जाते हैं सद जाम
हर गरदिसे-दीदा में कई गरदिसे-दौराँ।
ख़मयाज़ा-ए-पैकर में चटक जाते है गुंचें
रंगीनी-ए-क़ामत चमनिस्ताँ-चमनिस्ताँ।
हैं जलवादहे – बज़्म पसीने के ये क़तरे
जिस्मे-अरकआलूद से महफ़िल है चरागाँ।
अब गरदने-मीना भी है शाइसता – ए- जुन्नार
ज़रकारी – ए- ख़मदार से है साफ नुमायाँ।
इक शोला-ए-बेदूद है, या क़ुलक़ुले-मीना
ये नग़्मा है रोशन – कुने – तारीकी-ए-दौराँ।
साग़र की खनक, दर्द में डूबी हुई आवाज़
इस दौरे-तरक़्क़ी में दुखी है बहुत इंसाँ।
आतशकदा-ए-ग़ैब से ले आये हैं ये लोग
पहलू में हमारे हैं दिले-शोला-बदामाँ।
मयख़ाना भी है ग़मकदा-ए-ज़ीस्त की तस्वीर
नमदीदा हैं पैमाने, प्याले दिले-सोज़ाँ।
क्या होने को है कारगहे-दह्र में साकी!
जिस सम्त नज़र जाये, कयामत के हैं सामाँ।
कब होगी हुवेदा उफ़ुक़े-ख़ुम से नई सुब्ह
शीशे में छलकता तो है मुस्तक़बिले इन्साँ।
इस बादा-ए-सरजोश से उठती हैं जो मौजें
हैं आलमे-असरार की वो सिलसिला-जुंबाँ।
ये जिस्म है कि कृष्न की बंशी की कोई टेर
बल खाया हुआ रूप है या शोला-ए-पेचाँ।
सद मेहरो-क़मर , इसमें झलक जाते हैं साक़ी!
इक बूँद मये-नाब में सद आलमें इमकाँ।
मय जोशी-ए-सहबा में धड़कता है दिले-जाम
साग़र में हैं मौजे कि फड़कती है रगे-जाँ।
साक़ी तेरी आमद की बशारत है शबे-माह
निकला वो नसीबों को जगाता शबे-ताबाँ।
जामे-मये रंगी है कि ग़ुलहाये-शुगुफ़्ता
मयख़ाने की ये रात है जो सुब्हे-गुलिस्ताँ।
पूछे न हमें तू ही तो हम लोग कहाँ जायें
ऐ साक़ी-ए-दौराँ अरे ऐ साक़ी-ए-दौराँ।
साक़ी ये तेरा क़ौल हमें याद रहेगा
आरास्ता जिस वक़्त हुई महफ़िले-रिंदाँ।
बस फ़ुरसते-यक-लमहा है रिन्दों कि है उतरा
इस लम्हा अबद का तहे-नुह-गुम्बदे-दौराँ।
बरहक़ है ’फ़िराक़’ अहले-तरीक़त का ये कहना
ये मये-ग़मे-दुनिया को बना दे गमें-जानाँ।