यादे-जानाँ. भी अजब रूह-फ़ज़ा  आती है
साँस लेता हूँ तो जन्नत की हवा आती है

मर्गे-नाकामे-मोहब्बत मेरी तक़्सीर मुआफ़
ज़ीस्त बन-बन के मेरे हक़ में क़ज़ा  आती है

नहीं मालूम वो ख़ुद हैं कि मोहब्बत उनकी
पास ही से कोई बेताब सदा आती है

मैं तो इस सादगी-ए-हुस्न पे सदक़े
न जफ़ा आती है जिसको न वफ़ा आती है

हाय क्या चीज़ है ये तक्मिला-ए-हुस्नो-शबाब 
अपनी सूरत से भी अब उनको हया आती है

By shayar

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