यह मेरी तौबा नतीजा है बुखले-साक़ी का।
ज़रा-सी पी के कोई मुँह ख़राब क्या करता?
यही थी ज़ीस्त की लज़्ज़त यही थी इश्क़ की शान।
शिकायते-तपिशो-इज़्तराब क्या करता॥
मुझे मिटा तो दिया क़ब्ल अहदेपीरी के।
सलूक और दो रोज़ा शबाब क्या करता॥
यह बहरेइश्क का तूफ़ान और ज़रा-सा दिल।
जहाज़ उलट गये लाखों हुबाब क्या करता॥
पड़े न होते जो ग़फ़लत के ‘आरज़ू’! परदे।
खु़दा ही जाने यह जोशेशबाब क्या करता॥