मेरी दास्ताने-ग़म को, वो ग़लत समझ रहे हैं।
कुछ उन्हीं की बात बनती अगर एतबार होता॥
दिले पारा-पारा तुझ को कोई यूँ तो दफ़्न करता।
वो जिधर निगाह करते उधर इक मज़ार होता॥
मेरी दास्ताने-ग़म को, वो ग़लत समझ रहे हैं।
कुछ उन्हीं की बात बनती अगर एतबार होता॥
दिले पारा-पारा तुझ को कोई यूँ तो दफ़्न करता।
वो जिधर निगाह करते उधर इक मज़ार होता॥