मानव का मन शान्त करो हे!
काम, क्रोध, मद, लोभ दम्भ से
जीवन को एकान्त करो हे।
हिलें वासना-कृष्ण-तृष्ण उर,
खिलें विटप छाया-जल-सुमधुर,
गूंजे अलि-गुंजन के नूपुर,
निज-पुर-सीमा-प्रान्त करो हे।
विहग-विहग नव गगन हिला दे,
गान खुले-कण्ठ-स्वर गा दे,
नभ-नभ कानन-कानन छा दे,
ऐसे तुम निष्क्रान्त करो हे।
रूखे-मुख की रेखा सोये,
फूट-फूटकर माया रोये,
मानस-सलिल-मलिनता धोये,
प्रति मग से आक्रान्त करो हे!