जहल, फ़ाक़ा, भीख, बीमारी नजासत का मकान
ज़िन्दगानी, ताज़गी, अकलो फ़िरासत का मसान ।

          वहम ज़ायदा ख़ुदाओं की रिवायत का गुलाम
          परवरिश पाता रहा है जिसमें सदियों का जुज़ाम ।

झड़ चुके हैं दस्तो बाजू जिसके उस मशरिक़ को देख,
खेलती है साँस सीने में मरीज़े दिक को देख ।

          एक नंगी न‍अश बेगोरो कफ़न ठिठरी हुई
          मग़रिबी चीलों का लुक़मा ख़ून में लिथड़ी हुई ।

एक क़ब्रस्तान जिसमें हूँ न हाँ कुछ भी नहीं
इक भटकती रुह है जिसका मकाँ कोई नहीं ।

          पैकरे माज़ी का इक बेरंग और बेरुह खोल ।
          एक मर्गे बेक़यामत एक बेआवाज़ ढोल ।

इक मुसलसिल रात जिसकी सुबह होती ही नहीं
ख़्वाबे असहाबे क़हफ़ को पालने वाली ज़मीं ।

          इस ज़मीने मौत परवर्दा को धाया जाएगा
          इक नई दुनिया नया आदम बनाया जाएगा ।

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