मरते-मरते न कभी आक़िलो-फ़रज़ाना बने।
होश रखता हो जो इन्सान तो दिवाना बने॥
परतबे-रुख़ के करिश्मे थे सरे राहगुज़र।
ज़र्रे जो ख़ाक से उट्ठे, वो सनमख़ाना बने॥
कारफ़रमा है फ़क़त हुस्न का नैरंगे-कमाल।
चाहे वो शमअ़ बने, चाहे वो परवाना बने॥
मरते-मरते न कभी आक़िलो-फ़रज़ाना बने।
होश रखता हो जो इन्सान तो दिवाना बने॥
परतबे-रुख़ के करिश्मे थे सरे राहगुज़र।
ज़र्रे जो ख़ाक से उट्ठे, वो सनमख़ाना बने॥
कारफ़रमा है फ़क़त हुस्न का नैरंगे-कमाल।
चाहे वो शमअ़ बने, चाहे वो परवाना बने॥