मुनव्वर ख़मूशी के बिल्लौर छनके
किरण मरमरी फ़र्श पर छनसे टूटी
कली चिटकी, आवाज़ के फूल महके
रंगों की सुरों की कोई कहकशाँ
खिलखिलाती हुई गोद में आ पड़ी है
ख़मूशी के गहरे समुंदर की तह से
किसी जल-परी ने मुझे जैसे आवाज़ दी हो
अँधेरे के परदे हिले, साज़ चौंके
कई नूर की उँगलियाँ जगमगाईं
शफ़क़-दर-शफ़क़, रंग-दर-र्म्ग
आरिज़ का हैरतकदा सामने है
वो हँसता हुआ मयकदा सामने है
छनक सामने है
किसी को यह क़िस्सा सुनाऊँ तो कैसे ?
क़दम और आगे बढ़ाऊँ तो कैसे ?