बहार लाई है पैग़ामे-इनक़लाबे-बहार।
समझ रहा हूँ मैं कलियों के मुसकराने को॥
काफ़िर सूरत देख के मुँह से आह निकल ही जाती है।
कहते क्या हो? अब कोई अल्लाह का यूँ भी नाम न लें॥
गो नहीं जुज़-तर्के-हसरत दर्दे-हस्ती का इलाज।
आह! वो बीमार जो आज़ुर्द-ए-परहेज़ है॥
अहले-ख़िरद में इश्क़ की रुसवाइयाँ न पूछ।
आने लगी है ज़िक्रे-वफ़ा से हया मुझे॥
यारब! नवाये-दिल से तो कान आशना-से हैं।
आवाज़ आ रही है ये कब की सुनी हुई॥