बक़द्र-ए-शौक़ इक़रार-ए-वफ़ा क्या|
हमारे शौक़ की है इंतहा क्या|

मुहब्बत का यही सब शगल ठहरा,
तो फिर आह-ए-रसा क्या ना-रसा क्या|

दुआ दिल से जो निकले कारगर हो,
यहाँ दिल ही नहीं दिल से दुआ क्या|

दिल-ए-आफ़त-ज़दा का मुद्द’आ क्या,
शिकस्ता-साज़ क्या उस की सज़ा क्या|

सलामत दामन-ए-उम्मीद-ए-“सीमाब”,
मुहब्बत में किसी का आसरा क्या|

By shayar

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