क्यों जीवन-धन ! ऐसा ही है न्याय तुम्हारा क्या सर्वत्र
लिखते हुए लेखनी हिलती, कँमता जाता है यह पत्र
औरों के प्रति प्रेम तुम्हारा, इसका मुझको दुःख नहीं
जिसके तुम हो एक सहारा, उसको भूल न जाव कहीं
निर्दय होकर अपने प्रति, अपने को तुमको सौंप दिया
प्रेम नहीं, करूणा करने को क्षण-भर तुमने समय दिया
अब से भी वो अच्छा है, अब और न मुझे करो बदनाम
क्रीड़ा तो हो चुकी तुम्हारी, मेरा क्या होता है काम
स्मृति को लिये हुए अन्तर में, जीवन कर देंगे निःशेष
छोड़ो अब भी दिखलाओ मत, मिल जाने का लोभ विशेष
कुछ भी मत दो, अपना ही जो मुझे बना लो, यही करो
रक्खो जब तक आँखो में, फिर और ढार पर नहीं ढरो
कोर बरौनी का न लगे हाँ, इस कोमल मन को मेरे
पुतली बनकर रहें चमकते, प्रियतम ! हम दृग में तेरे