न फ़रमाओ, “नहीं है आदमी में ताबे-नज़्ज़ारा”।
सँभल जाओ अब उठती है निगाहे-नातवाँ मेरी॥
मेरी हौरत पै वो तनकी़द की तकलीफ़ करते हैं।
जिन्हें यह भी नहीं मालूम नज़रें हैं कहाँ मेरी॥
न फ़रमाओ, “नहीं है आदमी में ताबे-नज़्ज़ारा”।
सँभल जाओ अब उठती है निगाहे-नातवाँ मेरी॥
मेरी हौरत पै वो तनकी़द की तकलीफ़ करते हैं।
जिन्हें यह भी नहीं मालूम नज़रें हैं कहाँ मेरी॥