नव तन कनक-किरण फूटी है।
दुर्जय भय-बाधा छूटी है।

प्रात धवल-कलि गात निरामय
मधु-मकरन्द-गन्ध विशदाशय,
सुमन-सुमन, वन-मन, अमरण-क्षय,
सिर पर स्वर्गाशिस टूटी है।

वन के तरु की कनक-बान की
वल्ली फैली तरुण-प्राण की,
निर्जल-तरु-उलझे वितान की
गत-युग की गाथा छूटी है।

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