जितने कवि कोविद भए कहि गए तुम्‍हें पुकार।
चौकस रहियो धरम से मिलिहें छली हजार।।1

नहिं परियो उन जाल में बुद्धि तुम्‍हारि हर लेंय।
उल्‍टा ज्ञान बताय कर धर्म नष्‍ट कर देंय।।2

जो पालै निज धरम को ईश्‍वर चाहै वाहि।
चुम्‍मक खींचै लोह जस जान प्रेम निज ताहि।।3

अब से चेतहु धरम तुम नहिं कछु भई विलंब।
समय बीत पछितावगे फिर नहिं लगै अवलंब।।4

देखहु आँख पसार तुम कलियुग का व्‍यवहार।
धर्महीन धरमज्ञ हैं धरमग बने गँवार।।5

परखहु दुनिया की हवा कैसी बहै बयारि।
दुनिया जाय तो जान दे आपनि लेहु सम्‍हारि।।6

बहु प्रकार ग्रंथन कह्यो तबहुँ न कीन्‍ह विचार।
पग पग पर ठोकर मिलै और मिलै धिक्‍कार।।7

तबहुँ न खोली आँख तुम रहे नींद में सोय।
उन छलियन संग बैठकर दियो धर्म निज खोय।।8

जिन खायो निज धरम को उनका सर्वस नाश।
धर्म नाश नहीं होय वरु नाशै भूमि आकाश।।9

धर्मी धरम न छोड़हिं तन धन बल वरु जाय।
धर्म रहै जो कंठ में झक मारें सब आय।।10

सजग होहु तुम सजन जन राखहु शास्‍त्र प्रमाण
धर्म गए नहिं ऊबरौ समुझावैं रहमान।।11

By shayar

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