दिल की क्या क़दर हो मेहमान कभी आए न गए
इस मकाँ में तिरे पैकाँ कभी आए न गए

आप इश्क़-ए-गुल-ओ-बुलबुल की रविश क्या जानें
अन्दरून-ए-चमनिस्ताँ कभी आए न गए

हम ने घर अपना ही वहशत में बयाबाँ समझा
भूल कर सू-ए-बयाबाँ कभी आए न गए

फिर भी करते हैं बयाँ मुल्क-ए-अदम का अहवाल
जीते जी हज़रत-ए-इन्साँ कभी आए न गए

समझें वो क्या कि हैं किस हाल में आसूदा-ए-ख़ाक
जो सर-ए-गोर-ए-ग़रीबाँ कभी आए न गए

रख लिया इश्क़ में अश्कों ने भरम रोने का
ये गुहर तो सर-ए-मिज़गाँ कभी आए न गए

क़द्र क्या अहल-ए-ज़माना को हमारी हो ‘रशीद’
हम कहीं बन के सुख़न-दाँ कभी आए न गए

By shayar

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