तौहीद का पैग़ाम सुनाने आये
वहदत का नया नक़्श ज़माने आये
गुमराह थे जो राहे-महब्बत से ‘रतन’
ऐसों को रहे-शौक़ दिखाने आये।
अफ़सोस मिटी जाती है अब हस्तीए-कौम
है दुश्मने-अक़्ल-ओ-होश बद मस्तीए-कौम
पस्ती को भी होती है नदामत इस से
देखे तो कोई आ के ‘रतन’ पस्तीए-कौम।
पानी में है गो आग लगाना मुश्किल
है अर्ज़-ए-समा को भी मिलाना मुश्किल
इन सब से है इक और ही मुश्किल बढ़ कर
है कौम की बिगड़ी को बनाना मुश्किल।
इस कौम का गिर कर न उभरना देखो
चढ़ते हुए दरया का उतरना देखो
पस्ती को भी शर्माती है इस की पस्ती
पस्ती का यहां हद से गुज़रना देखो।
मंज़िल के लिए गिर के उभरना सीखो
तूफ़ान से बे- खटके गुज़रना सीखो
पस्ती को बलंदी से बदलना है अगर
सौ जान से तुम कौम पे मरना सीखो।
अब कौम को पस्ती से उठाना होगा
जज़्बात का ऐजाज़ दिखाना होगा
बिगड़े हुए हालात बताते हैं ‘रतन’
अब कौम की बिगड़ी को बताना होगा।