नव वसन्त करता था वन की सैर
जब किसी क्षीण-कटि तटिनी के तट
तरुणी ने रक्खे थे अपने पैर।
नहाने को सरि वह आई थी,
साथ वसन्ती रँग की, चुनी हुई, साड़ी लाई थी।
काँप रही थी वायु, प्रीति की प्रथम रात की
नवागता, पर प्रियतम-कर-पतिता-सी
प्रेममयी, पर नीरव अपरिचिता-सी।
किरण-बालिकाएँ लहरों से
खेल रहीं थीं अपने ही मन से, पहरों से।
खड़ी दूर सारस की सुन्दर जोड़ी,
क्या जाने क्या क्या कह कर दोनों ने ग्रीवा मोड़ी।
रक्खी साड़ी शिला-खण्ड पर
ज्यों त्यागा कोई गौरव-वर।
देख चतुर्दिक, सरिता में
उतरी तिर्यग्दृग, अविचल-चित।
नग्न बाहुओं से उछालती नीर,
तरंगों में डूबे दो कुमुदों पर
हँसता था एक कलाधर,*—
ॠतुराज दूर से देख उसे होता था अधिक अधीर।
वियोग से नदी-हॄदय कम्पित कर,
तट पर सजल-चरण-रेखाएँ निज अंकित कर,
केश-गार जल-सिक्त, चली वह धीरे धीरे
शिला-खण्ड की ओर,
नव वसन्त काँपा पत्रों में,
देख दृगों की कोर।
अंग-अंग में नव यौवन उच्छ्श्रॄंखल,
किन्तु बँधा लावण्य-पाश से
नम्र सहास अचंचल।
झुकी हुई कल कुंचित एक झलक ललाट पर,
बढ़ी हुई ज्यों प्रिया स्नेह के खड़ी बाट पर।
वायु सेविका-सी आकर
पोंछे युगल उरोज, बाहु, मधुराधर।
तरुणी ने सब ओर
देख, मन्द हँस, छिपा लिये वे उन्नत पीन उरोज,
उठा कर शुष्क वसन का छोर।
मूर्च्छित वसन्त पत्रों पर;
तरु से वृन्तच्युत कुछ फूल
गिरे उस तरुणी के चरणों पर।**