जिस को हो चाह से नफ़रत उसे चाहें क्यों कर
और अगर चाहें तो फिर उस से निबाहें क्यों कर
हाथ में तेग़ नहीं दिश्नए-ख़ू रेज़ नहीं
चीर देती है कलेजे को निगाहें क्यों कर
आज तक कोई न उस राज़ की तह तक पहुंचा
दिल चुरा लेती हैं मासूम निगाहें क्यों कर
तुम को नफ़रत थी मिरे नाम से कल तक लेकिन
लड़ गयीं आज निगाहों से निगाहें क्यों कर
पास उल्फ़त का न है पास वफ़ा का तुम को
तुम्हीं कह दो कि निबाहें तो निबाहें क्यों कर
इस क़दर शिकवा-गुज़ार ऐ दिले-बेबाक़ न हो
शर्म से उट्ठेंगी वो नीची निगाहें क्यों कर
दिल कफ़न बांध के मैदान में उतरा है ‘रतन’
इस के बचने की निकाले कोई राहें क्यों कर।