जिसको नसीबे लज्जते आजार भी नहीं
वह बदनसीब जीने का हकदार भी नहीं
कल जिसके सर पे सायाए जुल्फें दराज़ था
आज उसके सर पे सायाए दीवार भी नहीं
तुम हाल पूछते हो, इनायत का शुक्रिया
अच्छा अगर नहीं हॅूँ तो बीमार भी नहीं
जल्वागरी की आपको मोहलत नहीं अगर
मेरी नजर को फुर्सते दीदार भी नहीं
सूनी पड़ी है मंजिले मेराजे इश्क भी
अब कोई लायके रसनो दार भी नहीं
जो बेखता हों उनको फरिश्तों में दो जगह
इन्सान वो नहीं जो खतावार भी नहीं
उलझेंगे क्या वो गर्दिशे लैलो नहार से
जो आश्नाए काकुलो रूखसार भी नहीं
जीने से तंग आ गया हर आदमी मगर !
मरने के वास्ते कोई तैयार भी नहीं
क्यों अपने सर गुनाह का इल्जाम लूँ ’नजीर’
जब एक साँस लेने का मुख्तार [8] भी नहीं