जिन्हें मैं ढूँढता था आस्मानों में ज़मीनों में
वो निकले मेरे ज़ुल्मतख़ाना-ए-दिल के मकीनों में

अगर कुछ आशना होता मज़ाक़े- जिबहसाई  से
तो संगे-आस्ताने-काबा जा मिलता जबीनों से

कभी अपना भी नज़्ज़ारा किया है तूने ऐ मजनूँ !
कि लैला की तरह तू भी तो है महमिलनशीनों में

महीने वस्ल के घड़ियों की सूरत उड़ते जाते हैं
मगर घड़ियाँ जुदाई की गुज़रती है महीनों में

मुझे रोकेगा तू ऐ नाख़ुदा क्या ग़र्क़ होने से
कि जिन को डूबना है डूब जाते हैं सफ़ीनों  में

जला सकती है शम्म -ए-कुश्ता को मौज-ए-नफ़स  उन की
इलाही क्या छुपा होता है अहल-ए-दिल के सीनों में

तमन्ना दर्द-ए-दिल की हो तो कर ख़िदमत  फ़क़ीरों की
नहीं मिलता ये गौहर बादशाहों के ख़ज़ीनों में

न पूछ इन ख़िर्क़ापोशों की इरादत हो तो देख उनको
यदे-बैज़ा लिए बैठे हैं ज़ालिम आस्तीनों में

नुमायाँ हो के दिखला दे कभी इनको जमाल अपना
बहुत मुद्दत से चर्चे हैं तेरे बारीक बीनों के

महब्बत के लिये दिल ढूँढ कोई टूटने वाला
ये वो मै है जिसे रखते हैं नाज़ुक आबगीनों में

ख़मोश ऐ दिल भरी महफिल में चिल्लाना नहीं अच्छा
अदब पहला क़रीना है महब्बत के क़रीनों में

किसी ऐसे शरर से फूँक अपने ख़िरमने-दिल को
कि ख़ुर्शीदे-क़यामत भी हो तेरे ख़ोश्हचीनों में

बुरा समझूँ उन्हें मुझ से तो ऐसा हो नहीं सकता
कि मैं ख़ुद भी तो हूँ “इक़बाल” अपने नुक्ताचीनों में

By shayar

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