चलिये तो मिरे साथ जरा राहगुजर तक
दुश्वारि-ए-मंजिल  है फकत अज़्मे सफर  तक

दुनिया-ए-नजर अपनी है बस हद्दे नजर तक
जैसे रिते गेसू की पहुँच तेरी कमर तक

छुप-छुप के अँधरों में वो अंधेर हुआ है
तारीक  नजर आयी है तनवीरे सहर तक

जहमत ही उठायी है तो इक और भी जहमत
दिल में भी चले आओ जब आये हो नजर तक

क्यों रोज़ चली जाती है तू छोड़ के तनहा
ऐ शामे हसीं  चल मुझे पहुँचा दे सहर तक

है सिर्फ मुहब्बत की नजर इसका मुदावा
मरहम तो पहुँचने से रहा जख्में जिगर तक

क्या ख्ूब समझ पायी है ऐ किब्ला-ओ-काबा
समझाते हुए आ गये मैखाने के दर तक

दीदार ’नजीर’ आके किया बुल हवसों ने
अरबाबे  रह गये तहजीबे नजर तक

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