जिसको अब तक न पा सका विज्ञान
है वो बे-पंख कलपना की उड़ान
सब तो उनको समझ नहीं सकते
जिसका अब जैसा गुण हो वैसा ज्ञान
जाने कितनी शताब्दी के बाद
आया टैगोर जैसा एक इन्सान
उनकी एक-एक विचारधारा में
हे छुपा राग-रंग का तूफ़ान
इस तरह राग-रागनी का रचाव
जेसे पर्वत की ऊँची-ऊँची चट्टान
फूटते हैं वहाँ-वहाँ से गीत
टूटती है जहाँ-जहाँ से तान
कहीं साधू को मौत आयी है
जिन्दगी ने बदल लिया है मकान
डूबने पर भी देश का सूरज
जगमगाये हुए है सारा जहान
आज भी गुन उन्हीं का गाते हैं
जन,गन, मन के मीठे-मीठे गान
देखने में ’रवीन्द्र एक ऋषि
और समझो तो पूरा हिन्दुस्तान

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