गुचा-आ-गुल की कमी है न बहारों की कमी है न बहारों की कमी
चन्द कॉटे भी, कि पूरी हो गुलिस्ताँ  की कमी

कैसे पूरी करूँ इस आलमे इम्काँ की कमी
आदमी का तो हैं जंगल मगर इन्साँ की कमी

जिन्दगी अब भी है बेचैन सँवरने के लिए
आज भी है मेरे अफसाने मं उन्वाँ की कमी

जब भी आँसू मेरी आँखों से बढ़े है आगे
मुझको महसूस हुई है तेरे दामाँ  की कमी

कल भी जंजीर का झंकार पे गाया हमने
आज भी हससे ही पूरी हुई जिन्दाँ  की कमी

हमको जीने का सलीका नहीं मालूम ’नजीर’
वरना इस दौर  में है कौन से तूफाँ की कमी ।

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