ग़म की बस्ती अजीब बस्ती है
मौत महँगी है जान सस्ती है

मैं उसे क्यूँ इधर-उधर ढूँडूँ
मेरी हस्ती ही उस की हस्ती है

आलम-ए-शौक़ है अजब आलम
आसमाँ पर ज़मीन बस्ती है

जान दे कर जो ज़िंदगी पाई
मैं समझता हूँ फिर भी सस्ती है

ग़म है खाने को अश्क पीने को
इश्क़ में क्या फ़राग़-ए-दस्ती है

ख़ाक-सारी की शान क्या कहिए
किस क़दर औज पर ये पस्ती है

चाक-ए-दामान ज़िंदगी है ‘रतन’
ये जुनूँ की दराज़-दस्ती है।

By shayar

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