क्या हिंद का जिंदाँ काँप रहा गूँज रही हैं तकबीरें
उकताए हैं शायद कुछ क़ैदी और तोड़ रहे हैं जंज़ीरें
दीवारों के नीचे आ-आ कर यूँ जमा हुए हैं ज़िंदगानी
सीनों में तलातुम बिजली का आँखों में झलकती शमशीरें
भूखों की नज़र में बिजली है तोपों के दहाने ठंडे हैं
तक़दीर के लब पे जुम्बिश है दम तोड़ रही है तदबीरें
आँखों में गदा की सुर्खी है बे-नूर है चेहरा सुल्ताँ का
तखरीब ने परचम खोला है सजदे में पड़ी हैं तामीरें
क्या उन को खबर थी सीनों जो ख़ून चुराया करते थे
इक रोज़ इसी बे-रन्गी से झलकेंगी हज़ारों तस्वीरें
क्या उन को खबर थी होंठों पर जो कुफ्ल लगाया करते थे
इक रोज़ इसी खामोशी से टपकेंगी दहकती तक़रीरें
संभलो कि वो जिंदाँ गूँज उठा झपटो की वो क़ैदी छूट गये
उठो की वो बैठी दीवारें दो.दो की वो टूटी जंज़ीरें