कहाँ से बढ़के पहुँचे हैं कहाँ तक इल्म-ओ-फ़न साक़ी
मगर आसूदा इन्साँ का न तन साक़ी न मन साक़ी

ये सुनता हूँ कि प्यासी है बहुत ख़ाक-ए-वतन साक़ी
ख़ुदा हाफ़िज़ चला मैं बाँधकर सर से कफ़न साक़ी

सलामत तू, तेरा मयख़ाना, तेरी अंजुमन साक़ी
मुझे करनी है अब कुछ ख़िदमते-दारो-रसन साक़ी

रग-ओ-पै में कभी सेहबा ही सेहबा रक़्स करती थी
मगर अब ज़िन्दगी ही ज़िन्दगी है मोजज़न साक़ी

न ला बस्वास दिल में जो हैं तेरे देखने वाले
सरे-मक़तल भी देखेंगे चमन-अन्दर-चमन साक़ी

तेरे जोशे रक़ाबत का तक़ाज़ा कुछ कभी लेकिन
मुझे लाज़िम नहीं है तर्के-मनसब दफ़अतन साक़ी

अभी नाक़िस है मेयारो-जुनूँ तनज़ीम-ए-मयख़ाना
अभी ना-मो’तबर है तेरे मस्तों का चलन साक़ी

वही इन्साँ जिसे सरताजे-मख़लूक़ात होना था
वही अब सी रहा है अपनी अज़मत का कफ़न साक़ी

लिबास-ए-हुर्रियत के उड़ रहे हैं हर तरफ़ पुर्ज़े
लिबास-ए-आदमीयत है शिकन अन्दर-शिकन-साक़ी

मुझे डर है कि इस नापाकतर दौर-ए-सियासत में
बिगड़ जाए न ख़ुद मेरा मज़ाक़े-शेर-ओ-फ़न साक़ी

By shayar

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