करते है खत्म गम का फसाना यहाँ से हम
सुन भी सको तो कह न सकेंगे जवाँ से हम
दोनों तरफ है मुहरे खामोशी लगी हुई
कुछ बदगुमाँ से वो हैं तो कुछ बदगुमाँ से हम
दुनिया है इक पड़ाव मुसाफिर के वास्ते
इक रात साँस ले के चलेंगे यहाँ से हम
ऐ जिन्दगी यहाँ भी न आराम मिल सका
फिर ले के चल वहीं पे चले थे जहाँ से हम
आवाज गुम है मस्जिदों-मंदिर के शोर में
अब सोचते हैं उनको पुकारें कहाँ से हम
पीकर जरा नसीब की मेराज देखिए
लाये हैं अपने शहर की ऊँची दुकाँ से हम
है आये दिन ’नजीर’ वफा का मुतालबा
तंग आ गए हैं रोज के इस इम्तिहाँ से हम