एक माँ के कलंक का टीका
लग गया था ज़मी ंके माथे पर
लहरतारा के सूने रस्ते में
एक बच्चा पड़ा था लावारिस
इक नइमा को मिल गई नेमत
एक नुरू को’ नूरे ऐन मिला
मिल गया इक यतीम को साया
और फिर उस यतीम बच्चे का
रख दिया नाम बाप-माँ ने कबीर
एक करघे केताने-बाने से
जोड़ कर अपनी साँस का रिश्ता
इन्हीं काशी की पाक गलियों में
काटता था नसीब के चक्कर
आज से पाँच सौ बरस पहले
यही गंगा था जिसकी लहरें आज
गा रही हैं कबीर के दोहे
इसी गंगा की एक साढ़ी पर
आके सोई थी देश की तक़दीर
एक ठोकर में जाग उठी क़िस्मत
वाह रे रामानंद की ठोकर
था मुसलमाँ के अवरूओं पर बल
थी शिकन बरहमन के माथे पर
उसने वातावरण बदलने को
पूरे माहौल से बग़ावत की
सबके गु़स्ते की आग से खेला
दिल में तूफ़ान इन्क़लाब लिए
ले के जलते हुए लुकाठे को
बीच बाज़ार में खड़े हो कर
उसने हर एक को चुनौती दी
जिसको घर फूँकना हो साथ आए
घर में सब पैंतरे बदलते रहे
सामने उसके कोई आ न सका
दिल में सबके दिलों की धड़कन थी
सब की भाषा न कैसे अपनाता
एक मरकज़े पे सबको ले आया
तोड़ कर ज़ात-पात की दीवार
तै किया उसने हर मुक़ामे बुलंद
उठ के गंगा की एक साीढ़ी से
वो नज़र बन्दे दैरो-काबा नहीं
उसकी नज़रों में एक सारा जहाँ
हर जगह जल्वागर ख़ुदाए कबीर
उसकी हर राह एक राहे नज़ात
वो निराकार जो है सबका खु़दा
रख दिया राम उस ख़ुदा का नाम
तोड़ कर हर नदी के घेरे को
एक दरिया कि जिसकी लहरों पर
गा सकें गीत सब मुहब्बत के
आज से पाँच सौ बरस पहले !
बन के इक राम नाम की चादर
उस ने इस एहतियात से ओढ़ी
गई उड़ती रही ज़माने की
कभी चादर पे उसके पड़ न सकी
अपने को दाग़दार करते रहे
उसपे कीचड़ उछालने वाले
उसका कितनों ने दिल किया मैला
उसकी चादर न कर सके मैली
आख़रश उसने अपनी चादर से
सबकी उरयानियत को ढाँक लिया
ढाँक कर चल दिया बनारस से
और मगहर में जाते ही उसने
जिसकी चादर थी उसको वापस की
ली थी धरती से धर दी धरती पर
आज से पाँच सौ बरस पहले
मरने वाला न बरहमन था न शेख़
सिर्फ पैकर था आदमीयत का
आदमीयत है ऐसी शै जिसको
छू सका है न छू सकेगा कोई
लाश पर जब खड़ा हुआ झगड़ा
लाश फूलों में हो गई तब्दील
कोई जिस्मे कबीर छू न सका
फूल ही फूल सबके हाथ लगे
फूल गाड़े गए जलाए गए
वो जलाया गया न गाड़ा गया
उसका मसलक थ मेल और मिलाप
वो था परवरदिगारे यकजहती
आज उसकी बहुत ज़रूरत है
देश को बल्कि सारी दुनिया को
आज हाँ! पाँच सौ बरस के बाद!