एहसास का सवाल भी लो दूर हो गया
अब तर्क-ए-आरज़ू मेरा दस्तुर हो गया
उठते गए हिजाब फ़रेब-ए-ख़ुलूस के
आता गया जो पास वही दूर हो गया
राह-ए-हयात मुझ से ही मंसूब हो गई
मैं इस तरह मिटा हूँ के मशहूर हो गया
हद से ज़्यादा रौशनियाँ ज़ुल्मतें बनीं
हद से सिवा अँधेरा बढ़ा नूर हो गया
ये शहर-ए-ज़िंदगी के उजालों से पूछिए
मैं किस लिए फ़रार पे मजबूर हो गया