सागर-सा उमड़ पड़ूँ मैं।
लहरें असंख्य फैलाकर;
विचरूँ झंझा के रथ पर
मैं ध्वंसक रूप बना कर!
शिव-सा तांडव दिखलाऊँ
मैं करूँ प्रलय-सा गर्जन;
बिजली बनकर तड़कूँ मैं
काँपे नभ अवनी निर्जन!
बरसाऊँ सूर्य-सरीखा
विकराल अनवरत ज्वाला;
मैं ज़हर उगल दूँ जग में
यौवन का पीकर प्याला!
मैं बनकर तीर बधिक की
छेदूँ अन्याय-हृदय को;
कर शंख-निनाद बुलाऊँ
भीषण-रक्ताक्त-विजय को!
मैं मातृ-मूर्ति-मन्दिर में
प्राणों का दीप जलाऊँ;
शोणित-समुद्र में तैरूँ
प्रलयंकर रूद्र कहाऊँ!
आ जा हे अंतक स्वामी!
हे इष्टदेव! अब आ जा;
मेरी यौवन-लहरों में
बस, यही उमंग उठा जा!