निराकार प्रभु को नमहुँ धरहुँ चरण तल शीश।
हाथ जोरि बिनती करहुँ कृपा करहुँ जगदीश।।1।।
अंतर्यांमी प्रभु अहैं जानत मम उर बात।
सिद्ध करहुँ मम कामना दूर करहुँ उत्पात।।2।।
त्रिभुवनपति करुणायन सुन लेहु बिनती मोरि।
ज्ञान प्रकाश रचना चहहुँ दया चहत हौं तोरि।।3।।
मन चाहत सागर भरन बिनु गगरी बिनु डोर।
देहु बुद्धि घट कमल रजु लख कर अपनी ओर।।4।।
कृपा तुम्हारी से चढ़ैं पंगुल ऊँच पहार।
करहुँ कृपा मोहिं दीन पर निश्चय ह्वै जाऊँ पार।।5।।
तुम प्रभु दीन दयाल नित करत दीन पर छोहा।
देहु दया जलयान प्रभु पार लगावहु मोह।।6।।
प्रभु तुव बल लवलेश ते मूरख होय सुजान।
सोई बल मम भुजन में देहु दया कर दान।।7।।
जो अक्षर भूलौं कहीं हे प्रभु दीन दया।
अज्ञ जान बतलाइयो और करैहहु ख्याल।।8।।
गुरु पद पंकज नाय सिर हृदय मध्य धरूँ ध्यान।
हाथ जोरि बिनती करहुँ देहु ज्ञान कर दान।।9।।
बुद्धि बल विद्या है नहीं गुरु तुव चरनन आश।
तुम समीप मैं आयकर केहि विधि जाऊँ निराश।।10।।