(इस ईश्वरीय यश को दोहा अधर तक दोनों होठों के सिरे से सुई लगाकर सज्जन जन उच्चारण करें।।)
अधर
ईश्वर एक युगुल नहिं कोई। ईश्वर कार्य छिनक जग होई।।
दंड एक वह रचै संसारा। जो चाहै इक कला संहारा।।
है नहिं देह गेह ईश्वर के। रहत सत्य उर है नर जी के।।
करै कार्य नहिं हाथ लगावै। हैं नहिं चरण जगत नित धावैं।।
नहिं लोचन देखै संसारा। श्रवण नहीं सुन नाद उचारा।।
घ्राण नहीं जग लेत सुगंधा। तजै ईश अस है पर अंधा।।
शक्ति तोरि जग रही दिखाई। निराकार वह नहीं लखाई।।
नहिं कछु जोर तोर गुण गाऊँ। चरण लाग निज शीश झुकाऊँ।।