आदरणीय महाराज और ऐ शेख़ मुकर्रम
जय हिन्द, इजाज़त हो तो कुछ अर्ज़ करें हम
मज़हब की रारत को ज़रा गीजिए अब कम
है एकता भारत की बुदरी तरह से बरहम

नफ़रत की छुरी और मुहब्बत का गला है
फ़रमाइए ये कौन से मज़हब मं रवा है ?

मज़हब ने ही हम बन्दों को मलिक से मिलाया
मज़हब ने ही माँ-बाप का हक़ सबको जताया
मज़हब ने बहन-भाई के रिश्ते को बताया
मज़हब ने ही जीने का हर अंदाज़ सिखाया

मज़हब ही था इन्सान बनाने का सहारा
यह कैसे चलाने लगा इन्सान पे आरा

ये सिक्ख हैं, वो हिन्दू, ये इसाई, वो मुसलमान
महचान के आते नहीं आँधी हो के तूफ़ान
पहुँचाते हैं राहत कभी पहुँचाते हैं नुक़सान
कुफ्र इनके लिए है कोई शै और न ईमान

पानी का हवा का कोई मज़हब नहीं होता
इनको किसी फ़िरके से भी मतलब नहीं होता

पर्वत हो कि झरना हो कि वन सबके लिए है
हँसता हुआ चाँद और गगन सबके लिए है
तारे हों कि सूरज की किरन सबके लिए है
हर शामे वतन, सुबहे वतन सबके लिए है

इन्साँ के लिए सब है तो हैवाँ  के लिए भी
और आज का इन्साँ नहीं इन्साँ के लिए भी

सबसे हमें मिलता है मुहब्बत का इशारा
सबने तो किया होगा समुन्दर का नजारा
लड़ती है कभी धारे से बहती हुई धारा ?
टकराया गगन पर भी कभी तारे से तारा ?

आपस की मुहब्बत में ही जीने का मज़ा है
बे प्रेम के जीना नहीं जीने की सज़ा है

बाज़ार के हर शीशे को दर्पण नहीं कहते
बिन प्यार के दीदार को दर्शन नहीं कहते
उपवन से परे पुष्प् को उपवन नहीं कहते
गुलशन से अलग फूल को गुलशन नहीं कहते

राहत भी उठायेंगे मुसीबत भी सहेंगे
सब अहद  करें आज कि हम एक रहेंगे

जब देश की आती है अचानक कोई आफ़त
मालूम जभी होती है हर ख़ून की क़ीमत
वो ख़ून भी ज़ाया  हुआ नफ़रत की बदौलत
जिस ख़ून से हो सकती थी धरती की हिफ़ाजत

आ जाये समझ में अगर अरवाबे चमन की
इक ख़ून का क़तरा भी अमानत है वतन की

हर इक बड़े त्यौहार को मिल-जुल के मनाएँ
शुभ दिन के बहाने से गले सबको लगाएँ
दिल दिल से तो कदमों से कदम अपने मिलाएँ
हँस, हँस के हँसी फ़िरक़ापरस्ती की उड़ाएँ

अब भी काई हाथों में अर हाथ न देगा
बन्दे का तो क्या जिक्र, खु़दा साथ न देगा

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