इक सितमगर ने मुझे आज बुला भेजा है
परदए-लुत्फ में पैगामे-क़ज़ा भेजा है
क्या मिरी हसरते-दीदार भी रुसवा होगी
उस ने भेजा है लिफाफा तो खुला भेजा है
मेरे ख़ालिक को है अजदाद से उल्फ़त कितनी
शाह के साथ ही दुनिया में गदा भेजा है
रंज-ओ-ग़म, दर्द-ओ-अलम, सोज़-ओ-गुदाज़
ख़ूब तुम ने ये वफ़ाओं का सिला भेजा है
ताजे-शाही पे नज़र उठ नहीं सकती मेरी
उस ने ख़त भेजा है या बाले-हुमा भेजा है
अदम तो ये था ‘रतन’ हुस्न से पुरसिश होती
क्यों फ़क़त इश्क़ को फरमाने-सज़ा भेजा है।