आ गई आहे-शररबार ज़बां तक आखिर
आग के नीचे धुआं रहता कहां तक आखिर

तौबा कर के न रहा दिल में वक़ारे-तौबा
फ़सले-गुल लाई दरे-पीरे-मुगां तक आखिर

उफ़ ये ताकीदे-खमोशी का निराला अंदाज़
काट कर रख दी सितमगर ने ज़बां तक आखिर

अपनी सूरत में नज़र आती है उस की सूरत
बात पहुंची है महब्बत की यहां तक आखिर

अब न जाऊंगा तिरे दर से पलट कर ऐ दोस्त
जान पर खेल के पहुंचा हूँ यहां तक आखिर

न छुपा राज़े-महब्बत किसी उन्वां न छुपा
आ गया नाम तिरा मिरी ज़बां तक आखिर

अब न वो रंगे-सुख़न है न वो उसलूबे-सुख़न
बदला फ़नकार का अंदाज़े-बयां तक आखिर

ऐ ‘रतन’ छूट गया दामने-तस्लीम-ओ-रिज़ा
बात आ ही गई फर्यादो-फुगां तक आखिर।

By shayar

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