आरति आतम देव की कीजै, ब्रह्म विवेक हृदय धर लीजै॥
परिपूरन को कहँ से आवाहन, सर्वाधार को देउँ कहँ आसन।
स्वच्छ शुद्ध कहँ अधरू आचमन, निर्लेपहिं कहँ चंदन लेपन॥
पुष्प कौन जब वे निर्वासन, निर्गंधहिं कस धूप सुगंधन।
स्वयं प्रकाश जो आतम चैतन, जोति कपूर है तुच्छ दिखावन॥
पान सुपारी मेवा मिष्ठान, पाक प्रसादी छत्तिस व्यंजन।
भोगी भोग बनाय कर भोजन, भोगे नहिं कोइ है निज पालन॥
देह देवालय आतम देवन, ताहि त्याग करे किनकी सेवन।
जाको तू चाहे नर ढूँढन, सो “हरिहर” ब्रह्मानन्द पूरन॥
मन-मंदिर वाको सिंहासन, ज्योतिमान शुच निर्मल चेतन।
आत्मदेव की आरति-पूजन, करहिं प्रेम-युत आदि संतजन॥

By shayar

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