आज तार मिला चुकी हूँ।
सुमन में संकेत-लिपि,
चंचल विहग स्वर-ग्राम जिसके,
वात उठता, किरण के
निर्झर झुके, लय-भार जिसके,
वह अनामा रागिनी अब साँस में ठहरा चुकी हूँ!
सिन्धु चलता मेघ पर,
रुकता तड़ित् का कंठ गीला,
कंटकित सुख से धरा,
जिसकी व्यथा से व्योम नीला,
एक स्वर में विश्व की दोहरी कथा कहला चुकी हूँ!
एक ही उर में पले
पथ एक से दोनों चले हैं,
पलक पुलिनों पर,
अधर-उपकूल पर दोनों खिले हैं,
एक ही झंकार में युग अश्रु-हास घुला चुकी हूँ!
रंग-रस-संसृति समेटे,
रात लौटी प्रात लौटे;
लौटते युग कल्प पल,
पतझार औ’ मधुमास लौटे;
राग में अपने कहो किसको न पार बुला चुकी हूँ!
निष्करुण जो हँस रहे थे
तारकों में दूर ऐंठे,
स्वप्न-नभ के आज
पानी हो तृणों के साथ बैठे,
पर न मैं अब तक व्यथा का छंद अंतिम गा चुकी हूँ!