बज़्मे-जहां में कोई बशर मुतमइन नहीं
दिल हो किसी का या हो नज़र मुतमइन नहीं
सुनता हूँ मैं अज़ल से वो शह रग के है क़रीब
फिर भी हनूज़ मेरी नज़र मुतमइन नहीं
पैवस्त हो के सीनए-आशिक़ में देख ले
तीरे-निगाहे-नाज़ अगर मुतमइन नहीं
शाम-ओ-सहर के दौर से हम क्या हों मुतमइन
जब खुद ही दौरे-शाम-ओ-सहर मुतमइन नहीं
डाली है घर में फूट महब्बत के दर्द ने
दिल मुतमइन है और जिगर मुतमइन नहीं
बे ताब वो है पार निकलने के वास्ते
शायद जिगर से तीरे-नज़र मुतमइन नहीं
इंसां बना के अशरफ़े-आलम बना दिया
इस पर भी ये हरीस बशर मुतमइन नहीं
हर ज़र्रा क़ायनात का तस्वीरे-यार है
क्यों कर कहूँ ‘रतन’ कि नज़र मुतमइन नहीं।