जल्वा कहाँ कि जोरे नजर आजमायें हम
पर्दा उठायें वो तो नजर भी उठायें हम
ऐ जाने इन्तिजार कोई ऐसी शक्ल भी
हर आने वाले पर तिरा धोका न खायें हम
आँखों की नींद दोनों तरह से हराम है
उस बेवफा को याद करें या भुलायें हम
है पीरे मैकदा भी मौजन भी मह्वे ख्वाब
ढलती है रात ऐसे में किसको जगायें हम
मस्जिद का दर ीाीबन्द दरे मैकदा भी बन्द
किस दर पे जायें कौन सा दर खटखटायें हम
हल्का करें तो कैसे करें दिल के बोझ को
दस्ते दुआ उठायें कि सागर उठायें हम
पहुँचेंगे मैकदे में तो ढालेंगे बेहिसाब
मस्जिद में जायेंगे तो गिनेंगे खतायें हम
वो शामें मैकदा हो कि सुबहे हरम ’नजीर’
लेने लगे हैं दोनों के सर की बलायें हम