कुंज-कुंज कोयल बोली है,
स्वर की मादकता घोली है।
कांपा है घन पल्लव-कानन,
गूँजी गुहा श्रवण-उन्मादन,
तने सहज छादन-आच्छादन,
नस ने रस-वशता तोली है।
गृह-वन जरा-मरण से जीकर
प्राणों का आसव पी-पीकर
झरे पराग-गन्ध-मधु-शीकर,
सुरभित पल्लव की चोली है।
तारक-तनु रवि के कर सिंचित,
नियमित अभिसारक जीवित सित,
आमद-पद-भर मंजु-गुंजरित
अलिका की कलिका डोली है।